श्री राम और हनुमान जी की अनसुनी कहानी

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श्री राम और हनुमान जी की अनसुनी कहानी 

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रामायण के सुंदर-कांड में हनुमान जी के साहस और देवादिन क्रम का वर्णन किया गया है| हनुमान जी राम जी के 14 दिनों के वनवास के समय तब मिले थे जब राम जी अपने भ्राता लक्ष्मण के साथ अपनी पत्नी सीता की खोज कर रहे थे| सीता माता को लंका पति रावण कपट से हरण करके ले गया था| सीताजी को खोजते हुए दोनों भाई  ऋषिकेश पर्वत के समीप पहुंच गए जहां सुग्रीव अपने साथियों के साथ अपने  बड़े भाई बाली से डर के रहते थे| वानर राज बाली ने अपने छोटे भाई सुग्रीव को एक गंभीर विद्या भूत के चलते अपने साम्राज्य से बाहर निकाल दिया था और वह किसी भी तरह से सुग्रीव की बातें सुनने  के लिए तैयार नहीं था| साथ ही बाली ने सुग्रीव की पत्नी को भी अपने पास बलपूर्वक रखा हुआ था| 

राम और लक्ष्मण को आता देख सुग्रीव ने हनुमान को उनका परिचय जानने के लिए हनुमान को भेजा| हनुमान  जी एक ब्राह्मण के वेश में उनके समीप  पहुंच गए| हनुमान द्वारा प्रथम शब्द सुनते ही श्री राम ने लक्ष्मण से कहा- “कोई भी बिना वेद पुराण को जाने ऐसा नहीं बोल सकता जैसा इस ब्राह्मण ने बोला| इस ब्राह्मण के मंत्र मुग्ध उच्चारण को सुनके तो शत्रु अस्त्र त्याग देगा|” उन्होंने ब्राह्मण की प्रशंसा करते हुए कहा कि वह नरेश राजा सफल होगा जिसके पास ऐसा गुप्तचर होगा| 

श्री राम के मुख से इन सब बातों को सुनकर हनुमान जी ने अपना वास्तविक रूप धारण किया और श्री राम के चरणों में नतमस्तक हो गए| श्री राम ने उन्हें उठाकर अपने हृदय से लगा लिया| उसी दिन एक भक्त और भगवान का अनुमान और प्रभु राम के रूप से अटूट और अन्य मिलन हुआ| तत्पश्चात श्री राम ने बाली को मार कर सुग्रीव को उनका सम्मान और गौरव वापस दिलाया और लंका युद्ध में सुग्रीव ने अपनी वानर सेना के साथ श्रीराम का सहयोग दिया|


सीता माता की खोज में एक वानरों का एक दल दक्षिण तट पर पहुंच गया मगर इतनी विशाल सागर को लगने का सहज किसी में भी नहीं था| इस समस्या का समाधान कैसे निकाला जाए सब यही सोचने लगे| उसी समय जामवंत और बाकी अन्य  वानरों ने हनुमान जी को उनकी अद्भुत शक्तियों का स्मरण कराया| हनुमान जी अपनी शक्तियों को भूल चुके थे| उन सब ने उनकी शक्तियों के बारे में उनको बताया और पवन पुत्र हनुमान को  अपनी सारी शक्तियां याद आ गई| उन्होंने अपना विशाल रूप धारण किया और सागर पार करने लगे|

रास्ते में उन्हें एक पर्वत मिला और उसने हनुमान से कहा कि उनके पिता का उसके ऊपर एहसान है साथ ही उस पर्वत ने हनुमान से थोड़ा विश्राम करने का भी आग्रह किया मगर हनुमान ने एकमात्र भी समय व्यर्थ ना करते हुए पर्वतराज को धन्यवाद किया और आगे बढ़ चले| आगे चलकर उन्हें एक राक्षसी मिली जिससे कि उन्हें अपने मुख में घुसने की चुनौती दी और परिणाम स्वरूप  हनुमान जी उस  राक्षसी की चुनौती को स्वीकार किया और  बड़ी ही चतुराई से अति लघु रूप धारण करके उस राक्षसी के मुख में प्रवेश करके बाहर आ गए| अंत में उस  राक्षसी  ने यह स्वीकार किया कि वह उनकी बुद्धिमता की परीक्षा ले रही थी|

आखिरकार हनुमान सागर पार करके लंका पहुंचे और लंका की शोभा और सुंदरता को देखकर आश्चर्यचकित रह गए और उनके मन में इस बात का दुख भी हुआ कि यदि रावण नहीं माना तो इतनी सुंदर लंका का सर्वनाश हो जाएगा| तत्पश्चात हनुमान अशोक वाटिका में सीता जी को देखा और उनको अपना परिचय बताया साथ ही उन्होंने माता सीता को सांत्वना दी और साथ ही वापस प्रभु श्री राम के पास चलने का आग्रह किया मगर माता सीता ने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि ऐसा होने पर श्रीराम के पुरुषार्थ को ठेस पहुंचेगी| हनुमान ने माता सीता को प्रभु श्री राम के संदेश का ऐसा वर्णन किया जैसे कोई महान ज्ञानी लोगों को ईश्वर की महानता के बारे में बताता है| माता-सीता से मिलने के पश्चात हनुमान प्रतिशोध लेने के लिए लंका को तहस-नहस करने लगे|

 

हनुमान को बंदी बनाने के लिए रावण पुत्र (मेघनाद इंद्रजीत) जो रावण के बेटे थे| उन्होंने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, ब्रह्मा जी का सम्मान करते हुए हनुमान ने स्वयं को ब्रह्मास्त्र के बंधन में  बंदी बन गए साथ ही उन्होंने विचार किया कि इस अवसर का लाभ उठाकर लंका के राजा रावण से मिल भी लेंगे और उसकी शक्ति का अनुमान भी लगा लेंगे| इन्हीं सब बातों को सोच कर हनुमान स्वयं को रावण के समक्ष बंदी बनकर उपस्थित हो गए और जब उन्हें रावण के समक्ष लाया गया तो उन्होंने रावण को प्रभु श्री राम का चेतावनी भरा संदेश सुनाया और साथ ही यह भी कहा कि यदि रावण माता सीता को श्री राम को लौटा नहीं देगा तो लंका को तहस-नहस कर देंगे क्रोध में आकर रावण ने हनुमान को मृत्युदंड देने का आदेश दिया मगर रावण के छोटे भाई (विभीषण) ने यह कहकर बीच बचाव किया कि एक दूत को मारना संहिता के विपरीत है| 


रावण ने विभीषण की बात मानकर  हनुमान की पूंछ में आग लगाने का आदेश दिया| जब रावण के सैनिक हनुमान जी  की पूंछ में कपड़ा लपेट रहे थे तब हनुमान जी  ने अपनी पूंछ को बड़ा कर लिया और सैनिकों को कुछ समय तक परेशान करने के पश्चात पूछ में आग लगाने का अवसर दे दिया| पूछ में आग लगते ही  हनुमान जी ने बंधन मुक्त होकर लंका को जलाना शुरू कर दिया और अंत में पूछ में लगी आग को समुद्र में डाल दीया और आग बुझ गई| आग को बुझा कर हनुमान जी वापस प्रभु श्री राम के पास आ गए|


लंका युद्ध में जब लक्ष्मण मूर्छित हो गए थे तब हनुमान जी को द्रोणागिरी पर्वत पर से संजीवनी बूटी लाने भेजा गया मगर  उस बूटी को हनुमान जी पहचान नहीं पाए और  अपनी शक्ति का परिचय देते हुए  हनुमान जी ने विशाल रूप धारण किया और उन्होंने  पूरा द्रोणागिरी पर्वत ही रणभूमि में उठा लाए और परिणाम स्वरूप लक्ष्मण के प्राण की रक्षा की| भावुक होकर श्री राम ने हनुमान जी को हृदय से लगा लिया और बोले- “हनुमान तुम मुझे भ्राता भरत की तरह ही प्रिय हो|” हनुमान जी का पंचमुखी अवतार भी रामायण युद्ध की ही एक घटना है|


अहिरावण जो कि पातालपुरी का राजा था| उसने राम लक्ष्मण का सोते समय हरण कर लिया और उन्हें मोहित करके पाताल लोक में ले गया| उनकी खोज में हनुमान भी पातालपुरी नगरी में पहुंच गए पातालपुरी  के मंदिर के द्वार पर मकरध्वज पहरा देता था, जिसका आधा शरीर मछली का और आधा शरीर वानर का था| मकरध्वज के जन्म की कथा भी बहुत रोचक है| 

मकरध्वज की कहानी के बारे में मैंने पहले ही लिख रखा है👉[हनुमान पुत्र (मकरध्वज) की कहानी]

मकरध्वज को पता था कि अनुमान उसके पिता है मगर वह उन्हें पहचान नहीं पाया क्योंकि उसने  पहले कभी उन्हें देखा नहीं था| जब हनुमान ने अपना परिचय दिया तो वह जान गया कि यह मेरे पिता है मगर फिर भी उसने हनुमान के साथ युद्ध करने का निश्चय किया क्योंकि पातालपुरी के द्वार की रक्षा करना उसका प्रथम कर्तव्य था| हनुमान ने बड़ी आसानी से उसे युद्ध में हरा दिया|  उन्होंने उसे पातालपुरी के मुख्य द्वार पर बांध दिया| पातालपुरी में प्रवेश करने के पश्चात हनुमान ने पता लगा लिया कि रावण का वध करने के लिए उन्हें पांच दीप को  एक साथ बुझाना पड़ेगा| 


अहिरावण को आता देख हनुमान जी ने पंचमुखी का अवतार धारण किया और एक साथ में पांचों दीप को बुझा कर अहिरावण का अंत  किया| अहिरावण का वध होने के पश्चात हनुमान जी प्रभु श्री राम  की आज्ञा के अनुसार मकरध्वज को पातालपुरी का राजा बना दिया|  युद्ध समाप्त होने के साथ ही श्री राम का 14 वर्ष का वनवास  भी समाप्त हो चला था तभी श्री राम को स्मरण हुआ कि यदि वह वनवास समाप्त होने के बाद अयोध्या वापस नहीं पहुंचा तो भरत अपने प्राण त्याग देगा|


 साथ ही इस बात का भी आभास हुआ कि उन्हें वहां वापस जाने में अंतिम दिन से थोड़ा  वक्त हो जाएगा| इस बात को सुनकर श्रीराम चिंतित थे मगर हनुमान जी ने अयोध्या जाकर श्री राम के आने की जानकारी दी और भरत के प्राण बचाकर श्री राम को चिंता मुक्त किया|


अयोध्या में राज्याभिषेक होने के बाद प्रभु श्री राम ने उन सभी को सम्मानित करने का निर्णय लिया जिन्होंने लंका युद्ध में विजय प्राप्त करने में उनकी सहायता की थी उनकी सभा में एक भव्य समारोह का आयोजन किया गया जिसमें पूरी वानर सेना को उपहार देकर सम्मानित किया गया| हनुमान जी को भी उपहार लेने के लिए बुलाया गया| हनुमान मंच पर गए मगर उन्हें उपहार की कोई जिज्ञासा नहीं थी|


 हनुमान के ऊपर आता  देखकर श्री राम ने उन्हें गले से लगा लिया और कहा- “हनुमान ने अपनी निश्चल सेवा और पराक्रम से जो योगदान दिया है उसके बदले में ऐसा कोई उपाय नहीं है जो उनको दिया जा सके|” मगर अनुराग स्वरूप माता सीता ने अपना एक मोतियों का हार उन्हें  उपहार में दिया  उपहार पा  लेने के उपरांत हनुमान माला को एक-एक मोती को तोड़कर देखने लगे यह देखकर सभा में उपस्थित सदस्यों ने उनसे इसका कारण पूछा तो हनुमान ने कहा- “मैं यह देख रहा हूं कि मोतियों के अंदर उनके प्रभु श्री राम और माता सीता है कि नहीं क्योंकि यदि वह इनमें नहीं है तो इस हार का उनके लिए कोई मूल्य नहीं है|” 


यह सुनकर कुछ लोगों ने कहा- “हनुमान जी के मन में प्रभु श्री राम और माता सीता के लिए उतना प्रेम नहीं है जितना उन्हें लगता है|” इतना सुनते ही हनुमान ने अपनी छाती चीर के लोगों को दिखाई और सभी यह देख कर हैरान रह गए कि वास्तव में उनके हृदय में प्रभु श्री राम और माता सीता की छवि विद्यमान थी| 


तो दोस्तों! यह थी श्री राम और हनुमान की मित्रता| इस कहानी को पढ़कर हमें श्री राम और हनुमान जी के प्रेम के बारे में पता चलता है|

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